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Hand Book Of Radio Jockey

इस ब्लॉग में प्रकाशित समस्त विचार, मेरे खुदके हैं. इनका मेरी कार्यरत संस्था से कोई लेना देना नहीं है. मेरे विचारों को मेरे किसी भी कार्यस्थल या उसके कर्मचारियों से जोड़कर न देखा जाये.

हिन्दी, इंग्लिश और पञ्जाबी...

गुरुवार, 16 जुलाई 2009 - - 1 Comments

मेरा रात का शो चल रहा था, आठ से दस वाला "तफरीह जंक्शन"। आमतौर पर मेरे शो के वक्त स्टूडियो के टेलिविज़न पर न्यूज़ चैनल ही दिखाई देते हैं, परसों भी न्यूज़ चैनल ही लगा हुआ था। जिसमें भारतीय लोकसभा की बैठक दिखाई जा रही थी, जिसमें मुलायम सिंह यादव संसद के सदस्यों को हिन्दी का पाठ पढ़ा रहे थे, पहले उन्होंने एक सिख नेता को पञ्जाबी की जगह हिन्दी में बोलने को कहा, फिर पर्यावरण एवं वन राज्य मंत्री जयराम रमेश को इंग्लिश की बजाये हिन्दी में जवाब देने को कहा, फिर बारी आई मेनका गाँधी की। वो भी अपना भाषण इंग्लिश में दे रहीं थी। जयराम रमेश साहब तो हिन्दी में उतर आए, पर मेनका जी ने यादव जी के हिन्दी बोलने वाले भूत उतार दिए। कुछ देर बाद लालू यादव जी के मुह से ग्लोबल वार्मिंग की जगह ग्लोबल वार्निंग निकल आया तो उन्हें भी वासुदेव आचार्य ने टोक दिया।
अब मुद्दे की बात एक नही है, शायद दो हैं या तीन भी हो सकती हैं। पहली बात, हमारे नेताऒ को जो लाल बत्ती में घूमते हैं, जिन्हें आई ए एस और आई पी एस जैसे बड़े बड़े आधिकारी सलाम ठोकते हैं। उन्हें इंग्लिश नहीं आती, ये नेता हैं जो हमारे देश की दशा और दिशा निर्धारित करते हैं। क्या उम्मीद कर सकते हैं हम इनसे, और ऊपर से हमारी so called भोली जनता, जो कहीं से भोली नही है। बेवकूफ है शायद, पता नहीं कैसे इन नेताऒ को संसद तक पहुँचा देती है।
दूसरी बात, हम हमेशा कहते हैं की सरकारी कार्य हिन्दी में ही होगा। वही संसद में इंग्लिश में भाषण, ये तो नाइंसाफी है साहब। सरकार ख़ुद अपनी बात पर अमल नहीं करती है।
तीसरी बात, लोकसभा की एक बैठक में लाखों रुपये खर्च होते हैं ( एक बैठक के शायद दो लाख - बहुत ढूँढा पर पुख्ता जानकारी नहीं मिल पाई)। तो ये जो नेता गण होते हैं, ये दो लाख रुपये में भाषाई बहस करने के लिए संसद भेजे जाते हैं? अगर यही करना है तो अपने मदन महल चौराहे के पास, पूरन के एक पान की दुकान है। वहां पाँच रुपये का पान खाते हुए भी बहस की जा सकती है। फर्क इतना है की बहस के दौरान पान के दाग कपडों पर साफ़ दिखाई देंगे। लेकिन ये दागदार नेता, हमेशा बेदाग़ दिखाई देते हैं। सफ़ेद कपड़े, साफ़-सुथरा रहन-सहन, पर विचार हमेशा पीकदान बनी हुई दीवार के जैसे, स्वार्थ से भरे हुए।
खैर, मैं नेता नहीं हूँ। रेडियो जौकी हूँ, हिन्दी का उपयोग ज़्यादा करता हूँ ताकि हर सोसाइटी उम्र के लोग मेरी बात समझ सकें। पर मुझसे ऐसा कहा जाता है कि, मैं कुछ इंग्लिश का भी उपयोग अपनी स्क्रिप्ट में करूँ। इस बात मैं किसी से बहस करना नहीं पसंद करता। जो सहज है उसे अपना लो, बस जीवन सरल हो जाता है। लेकिन सहज होने भी सरल नहीं है और उस वक्त तो बिल्कुल नहीं, जब आप ब्लॉग लिख रहे हो और साथ में किसी मित्र से भी चैट कर रहे हों और वो आपके साथ भाषायी मतभेद होने पर कौमी हो जाए और अभद्रता पर उतर आए। फिलहाल हमारे नेता कब सहज हो पाएंगे ये जनता के वोट पर निर्भर है। वो सुबह कभी तो आएगी जब अखबार के फ्रंट पेज पर किसी घोटाले के बजाये किसी गाँव की खूबसूरत सी तस्वीर, उम्दा से कैप्शन के साथ लगी होगी।

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